126.विसर्जन : वैशाली की नगरवधू
साम्ब ने देवी अम्बपाली को दूसरी गिरि - गुहा में ले जाकर जिस श्यामा वामा के उन्हें सुपुर्द किया , उसका अंग - सौष्ठव और भाव-मृदुलता देख अम्बपाली भावविमोहित हो गईं। राजमहालयों में दुर्लभ सुख - सज्जा इस दुर्गम वन में उपस्थित थी । उस गिरि - गुहा के वैभव और विलास को देखकर अम्बपाली आश्चर्यचकित रह गईं। उन्होंने आगे बढ़कर सम्मुख स्मितवदना श्यामा वामा की ओर देखकर कहा
“ तू कौन है हला ? ”
“ मैं नाउन हूं भट्टिनी ! ”वह हंस दी ।
जैसे चन्द्रमा को देखकर कुमुदिनी खिल जाती है, उसी प्रकार उस श्यामा वामा के निर्दोष मृदुल हास्य से पुलकित होकर अम्बपाली ने उसे अंक में भरकर कहा
“ तू बड़भागिनी है हला, तू जिस पुरुष की सेवा में नियुक्त है, उसकी सेवा करने को न जाने कितने जन तरस रहे हैं । ”
“ सुनकर कृतकृत्य हुई, भट्टिनी , आपके दर्शनों से मेरे नेत्र स्नातपूत हो गए। अब आज्ञा हो तो मैं आपका अंग - संस्कार करूं । इस वन में जो साधन सुलभ हैं , उन्हीं पर भट्टिनी , सन्तोष करना होगा । ”
अम्बपाली ने मुस्कराकर कहा - “ अच्छा हला ! ”
नाउन ने देवी अम्बपाली का अंग -संस्कार किया , उन्हें सुवासित किया । नाउन के हस्त - लाघव , हस्त - कौशल , मृदुल वार्तालाप और यत्न से देवी अम्बपाली का सारा श्रम दूर हो गया । फिर जब सुवासित मदिरा और विविध प्रयत्न और एक से बढ़कर एक खाद्य- पेय उनके सम्मुख आए तो उनसे रहा नहीं गया । उन्होंने कहा - “ हला , तेरे स्वामी वे दस्यु -सम्राट क्या दर्शन ही न देंगे ? ”
“ यह तो उनकी इच्छा पर निर्भर है भट्टिनी, किन्तु अभी आप आहार करके थोड़ा विश्राम कर लें । ”
“ नहीं- नहीं हला, उन्हें बुला। ”
नाउन ने हंसकर कहा- “ क्या कहूं भट्टिनी , बुलाने से तो वे आएंगे नहीं। आप ही आ सकते हैं । ”
“ यह कैसी बात ? ”
“ वे किसी की इच्छा के अधीन नहीं हैं , इसी से। ”नाउन ने धृष्टतापूर्ण हंसी हंसते हुए कहा ।
“ ऐसा ही मैं भी कभी समझती थी । कभी अवसर मिलने पर उनसे कह देना । कह सकेगी ? ”
“ कह सकूँगी। ”
“ अब भी ऐसा ही है देवी अम्बपाली ! ”सोमप्रभ ने हंसते -हंसते आकर कहा ।
अम्बपाली ने सोमप्रभ को सुवेशित भद्र नागरिक वेश में नहीं देखा था । आज देखकर क्षण - भर को उनकी प्रगल्भता लुप्त हो गई । सोम ने कहा
“ आप मुझ पर कुपित तो नहीं हैं देवी ! ”
“ कुपित होकर तुम्हारे जैसे समर्थ का कोई क्या कर सकता है भद्र ? ”
“ असमर्थ होने पर भी कुछ जन समर्थ होते हैं । ”
“ ऐसे कितने जन हैं प्रियदर्शन ? ”
“ केवल एक को मैं जानता हूं आज्ञा पाऊ तो कहूं ! ”
“ स्वेच्छा से कहना हो तो कहो। ”
“ तो सुनो , मैंने एक व्यक्ति देखा है जो निरातंक, सालाद , सोल्लास हो स्वर्ण- रत्न भण्डार के द्वार उन्मुक्त करके दस्युओं को लूट लेने के लिए अभिनन्दित करता है। ”
“ रहने दो प्रिय, आओ, कुछ खाओ-पिओ! ”
दोनों बैठ गए । अवसर पाकर नाउन पान लेने खिसक गई। अम्बपाली ने सोम का हाथ पकड़कर कहा
“ तुम ऐसे समर्थ, ऐसे सक्षम, कामचारी, दिव्य शक्तियों से ओतप्रोत ऐन्द्रजालिक कौन हो प्रियदर्शन ? ”
“ यही कहने को मैं तुम्हें यहां ले आया हूं अम्बपाली! ”
“ तो कह दो प्रिय, मैंने तो तुम्हारे कण्ठ- स्वर से ही तुम्हें पहचान लिया था । ”
“ यह मैंने तुम्हारे इन नेत्रों में पढ़ लिया था । ”
“ तुम्हारी नेत्रों से पढ़ने की विद्या से मैं परिचित हूं , पर अब कहो। ”
“ मैं मागध हूं प्रिये , मेरा नाम सोमप्रभ है। ”
अम्बपाली ने जैसे तप्त अंगार स्पर्श कर लिया । सोम ने कहा -
“ क्या मागधों को तुम सहन नहीं कर सकतीं ? ”
“ नहीं प्रिये, नहीं । ”
“ इसका कारण ? ”
“ अकथ्य है। ”
“ अब भी ! ”
“ मृत्यु के मूल्य पर भी प्रियदर्शन सोम, यदि तुम अम्बपाली को क्षमा कर सको तो कर देना । ”उनके बड़े- बड़े नेत्र आंसुओं से गीले हो गए ।
“ प्रिये अम्बपाली, क्या मैं तुम्हारी कुछ भी सहायता नहीं कर सकता हूं ? ”
“ नहीं प्रियदर्शन , नहीं । अम्बपाली निस्सहाय -निरुपाय है । ”
विषादपूर्ण मुस्कान सोमप्रभ के मुख पर फैल गई । उन्होंने एक लम्बी सांस ली । उसके साथ अनेक स्मृतियां वायु में विलीन हो गईं।
“ प्रियदर्शन सोम , क्या मैं तुम्हारा कुछ प्रिय कर सकती हूं, प्राणों के मूल्य पर भी ? ”
“ प्रिये, तुम मुझे सदैव क्षमा करती रहना और सहन करती जाना । ”
“ अरे , यह तो मेरा अनुरोध था प्रियदर्शन ! ”
“ तब तो और भी अच्छा है । हम दोनों एक ही नाव पर जीवन -यात्रा कर रहे हैं । ”
“ जो कदाचित् विषाद, निराशाओं और आंसुओं से परिपूर्ण है। ”
“ तो क्या किया जा सकता है प्रिये! प्रियतमे , जीवन से पलायन भी तो नहीं किया जा सकता। ”
“ न , नहीं किया जा सकता। सोम प्रियदर्शन , एक याचना करूं ? ” सोम ने अम्बपाली के दोनों हाथ पकड़कर कहा
“ यह अकिंचन सोम तुम्हारा ही है , प्रिये अम्बपाली ! ”
“ तो प्रियदर्शन , मुझे सहारा देना , जब - जब मैं स्खलित होऊं तब - तब । ”
उनके होंठ कांपे, फिर उन्होंने टूटते अवरुद्ध स्वर में कहा - “ यह मत भूलना सोमभद्र कि मैं एक असहाय - दुर्बल नारी हूं , तुम पुरुष की भांति मेरी रक्षा करना, मैं तुम्हारी किंकरी, तुम्हारी शरण हूं। ”अम्बपाली सोम के पैरों में लुढ़क गईं । सोम ने उन्हें उठाकर अंक में भर लिया और अपने तप्त - तृषित , आग के अंगारों के समान जलते हुए होंठ उनके शीतल कम्पित होंठों पर रख दिए । अम्बपाली मूर्छित होकर सोम के अंक में बिखर गईं।